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Krishna Khatri

Abstract

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Krishna Khatri

Abstract

बिखरी धूप के ,,,,,

बिखरी धूप के ,,,,,

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बिखरी धूप के लहराते साए 

झूमकर जब लगा लेते हैं गले 

तब ये साए


हल्की-सी तपिश 

हल्की-सी जुम्बिश

देते हैं कुछ ऐसे कि

मन कुनकुनाता हुआ 

लगता है गरमाने !


और तुम -

मेरी सांसों में उतरने लगते हो !

फिर ये गरमाया मन

आकाशगंगा को चूमता हुआ 


पार क्षितिज के

स्वप्नीली दुनिया की  

परियों के आंचल में

दुबक जाता है।

 

तब तपिश और

जुम्बिश का अहसास 

पूरी शिद्दत से

समेट लेता है

अपने आंचल में मुझे


जब यही बिखरी धूप के

लहराते साए 

गले लगा लेते हैं झूमकर मुझे।


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