खामोश औरत
खामोश औरत
ख़ामोश है औरत उसे भी कुछ कहना है,
पर समाज कहता है खामोशी ही औरत का गहना है।
ना कहना कुछ तुम,
अब बस चुप रहना तुम,
जो बोली कुछ तो उत्पीड़ित की जाओगी,
जो नही माना सबका कहना तो किसी खुटे से बांध दी जाओगी।
ख़ामोश है औरत उसे भी कुछ कहना है,
पर समाज कहता है खामोशी ही औरत का गहना है।
एक स्त्री होने का हर फर्ज तुमने निभाया,
आखिर तुम्हारे हिस्से क्या आया,
छोटी उम्र में सपने तुम्हारे टूट गए है,
वक्त ने कच्ची उम्र में पक्के रिश्तों के ताने बाने बुने है।
ख़ामोश है औरत उसे भी कुछ कहना है,
पर समाज कहता है खामोशी ही औरत का गहना है।
कभी आईने में ज़रा खुद को निहारों,
कभी तो इन बंद ज़ुल्फो को इत्मीनान से सवारों,
कोई कसूर नहीं तुम्हारा फिर किस गुनाह की सजा तुमने खुद को दी है,
क्यूं तुमने खुद के हिस्से में बर्दाश्त करने की क्षमता रख ली है।
ख़ामोश है औरत उसे भी कुछ कहना है,
पर समाज कहता है खामोशी ही औरत का गहना है।
क्यूं एक औरत का खुदका अस्तित्व ही कहीं खो जाता है,
क्यूं उसके हौसलों का आशियाना समाज के सवालों से दब जाता है,
औरत एक किताब है जिसके पन्नों को किसी ने ना टटोला,
उसकी खामोशी में छुपी चीख को किसी ने ना सुना।