कभी तुम
कभी तुम
कभी तुम
अपना रुमाल मुझ को देना,
दो नदियाँ है जो हरदम
बहती रहती हैं।
कभी तुम
अपना ध्यान मुझ को देना,
कुछ अनकही सी उलझन है
उलझती रहती है।
कभी तुम
अपना चश्मा मुझ को देना,
चन्द गलियां हैं मेरी सीधी,
ओझल रहती है।
कभी तुम
अपना दीवान मुझ को देना,
खोजूंगी हमारी पंक्तियां
भूलती रहती हैं।
कभी तुम
अपनी घड़ी भी देना,
रोकूंगी सुइयां जो बैरी हैं,
दूर रखती हैं।