गांधारी का श्राप
गांधारी का श्राप
धूल धूसरित रक्त रंजित धरा
आर्त्त रुदन से कंपित हो रही प्रजा
दसों दिशाओं में बिखरी
क्षत विक्षत सेना
यह कैसा प्रयोजन है तुम्हारा; केशवा ?
गांधारी ने विलाप करते
अपने पुत्रों का स्मरण किया
वो पाँच और मेरे शत
फिर विनाश का कैसा यह तांडव?
तुम तो दयानिधी दयालु हो
सृष्टि के नियंता हो
गोचर है तुमको भविष्यातीत
क्योंकर किया फिर अर्जुन को
युद्ध के लिए प्रेरित!
पार्थ साहस छोड़ चुका था
धैर्य अपना खो चुका था
स्वजनों के वध के भय से
वह हताश हो चला था
तुम उसको उद्यत न करते
यह भीषण संग्राम न होता
न गिद्धों के झुंड मंडराते
न यह दृश्य गोचर होता
संतप्त और क्रुद्ध गांधारी ने
माधव को फिर श्राप दिया
मेरे शतपुत्रों का नाश हुआ है
तुम्हारे वंश का भी नाश होगा
सुन गांधारी की पीड़ित वाणी
व्यथित हो गए चक्रपाणि
यह कैसा दोषारोपण मुझ पर
हस्तिनापुर की महारानी
कौरव-पांडव मुझे एक सम
नहीं किसी से वैर इक क्षण
मैं तो सत्य के साथ रहा हूँ
दोनों पक्षों के बीच खड़ा हूँ
शांति दूत बन कर मैं
युद्ध रुकवाने आया था
पॉंडवों को राज्य के बदले
पाँच ही गाँवों में मनवाया था मैंने
किंतु पुत्र तुम्हारा अहंकारी था
धृतराष्ट्र महत्वाकांक्षी था
ठुकरा दिया मेरा प्रस्ताव
भीष्म द्रोण ने न किया बचाव
यह तो उनका तय प्रारब्ध था
फिर मेरे वश में क्या था
कुकर्मों का फल तो फलना था
उन्हें मृत्यु मुख में पड़ना था
मैं तो केवल मूक दर्शक हूँ
अगर मानो तो मार्गदर्शक हूँ
प्रेम और भक्ति के वश में हूँ मैं
अपने भक्तों का दास हूँ मैं
श्राप तुमने दिया है मुझको
वह निश्चित ही फलित होगा
काल की गति में बह कर
मेरे वंश का भी नाश होगा
बोले जगदीश्वर जगत नियंता
सर्वेश्वर परम विधाता
शक्ति है निरस्त कर दूँ
किंतु श्राप फलित होगा माता।