पापा की बिटिया
पापा की बिटिया
नन्ही सी बिटिया थी वह
तूफ़ानी रात को आयी थी
आते ही उसने सारे घर में
हलचल एक मचाई थी
ज़िद्दी हठी और नखरेल
थी वह अव्वल दर्जे की ग़ुस्सैल
सारे घर को सर पर उठाती थी वह
पापा की लाड़ली कहलाती थी वह
दिन और साल गुजरते गये
एक एक कर पापा के सपने सच होते गए
चुलबुली होनहार उत्साही थी वह
उनकी ऑंखों का तारा थी वह
देख उसे फिर नये रूप में
गर्व से अश्रु झलकाते थे वह
ख़ूब उन्नति करो, खूब फूलो- फलो
सर पर हाथ रख आशीष देते थे वह
फिर काल ने रंग दिखाया
असमय उन्हें सब से बिछडाया
हाँ वह अब बड़ी तो हो गई थी
पर फिर भी पापा की बिटिया थी वह
सपने देखना न छोड़ा उसने
पापा का सपना न कभी तोड़ा उसने
कठिन मुक़ाम तय किये उसने
नये आयाम फ़तह किये उसने
फिर भी मन में एक कमी है
उनकी शाबाशी की चाह बड़ी है
काश वो एक ही बार आ जाते
अपनी एक झलक दिखलाते
शब्दों से नहीं, ऑंखों से कह जाते
बिटिया मेरी बड़ी हो गई है.....!