कभी कभी
कभी कभी
कभी कभी सोचती हूँ तुम ना मिलते तो अच्छा था
खुद से थोड़ी बातें तो कर पाती, खुद का वजूद तो बनाती
तेरे आने से खुद का सबकुछ खो बैठी मैं किसी को क्या बतलाती
कभी कभी सोचती हूँ तुम ना मिलते तो अच्छा था
खुलकर हंसती खुलकर रोती खुद रूठी खुद ही मान जाती
जो बीत रही थी मुझपर वो आपबीती किसी को कैसे सुनाती
कभी कभी सोचती हूँ तुम ना मिलते तो अच्छा था
इठलाती इतराती गुनगुनाती बहक जाती बहार बनकर बरसती
कैसी बेचैनी थी मुझे कैसे पागलपन था कैसे उसका इलाज कराती
कभी कभी सोचती हूँ तुम ना मिलते तो अच्छा था।
