धर्म की माँ
धर्म की माँ
आज कि कविता मेरी धर्म की माँ को समर्पित!
आई थी मैं माँ जब तेरे शहर में , कोई नहीं सहारा था
बहुत परेशां थी मैं उस घड़ी सुन ,तुने गम से उभारा था
तरसी थी जिस ममता के लिए मैं, थामा हाथ हमारा था
देखा हरपल संघर्ष तुने मेरा दूर किया हर अंधियारा था
छत दी, प्यार दिया, सही गलत का अर्थ समझाया था
सोचती हूँ कभी तो क्या मेरी माँ ने इतना कर पाया था
तुने दी एक सच्ची सखी माँ तेरा प्यार मुझमें समाया था
माँ दिया साथ हर घड़ी जब मेरा अपना भी यहाँ पराया था।