कभी आओ...
कभी आओ...


कभी आओ हमारे भी दर पे
ख़्वाबों के दर पे तो तुम रोज़ ही आती हो
माहताब़ देखने को क्यूँ कहती हो हमें
जब उससे ज़्यादा नूर तुम लुटाती हो
अपनी मासूम हँसी अल्हड़ सा चेहरा लेकर आओ
अपने फ़लसफे के लिए क्यों हमें तड़पाती हो
ग़ज़लें लिखनी नहीं आती तुम्हें कहती तो हो
फिर अदाएँ दिखाकर अपनी क्यूँ मुझसे लिखवाती हो
साहिल भी है मिलने लायक़ जानती हो तुम
फिर क्यूँ दूर दूर रहकर उसे तरसाती हो...
कभी आओ हमारे भी दर पे
ख़्वाबों के दर पे तो तुम रोज़ ही आती हो
माहताब़ देखने को क्यूँ कहती हो हमें
जब उससे ज़्यादा नूर तुम लुटाती हो
अपनी मासूम हँसी अल्हड़ सा चेहरा लेकर आओ
अपने फ़लसफे के लिए क्यों हमे तड़पाती हो
ग़ज़लें लिखनी नही आती तुम्हें कहती तो हो
फिर अदाएँ दिखाकर अपनी क्यूँ मुझसे लिखवाती हो
साहिल भी है मिलने लायक़ जानती हो तुम
फिर क्यूँ दूर दूर रहकर उसे तरसाती हो
फ़लसफे - दर्शन