कब तक पुकारूं
कब तक पुकारूं
कब तक पुकारूं मैं तुम्हें
अब तो मुझसे मेरी सांसे भी बिछड़ने लगी है
पर मानी ना है मैंने अब तक हार
क्योंकि जिंदा अब तक आशाओं का मंजर है
कब तक पुकारूं मैं तुम्हें
तुम जो मानवता के पुतले बन खड़े हो
मदद की जरूरत है तुम्हारी
पर तुम अंंजान जो बनें बैठे हो
कब तक पुकारूं मैं तुम्हें
अब तो मेरी पुकार भी चीखने लगी है
क्या कहूं मैं अब तुम्हें
तुम्हारी आत्मा जो खोखली हो चुकी है
अब नहीं पुकारूंगी मैं तुम्हें
क्योंकि मेरी सांसे अब रुक चुकी है
पर अब आत्मा मेरी कहेगी तुमसे
कब तक पुकारूं मैं तुम्हें