कौन समझ पाया औरत की जिन्दगी
कौन समझ पाया औरत की जिन्दगी
कहते हैं सब एक ही बात “यह तेरे पिता का घर, वह तेरे पति का घर”,
क्यूँ नहीं समझ पाता कोई औरत का वजूद कि उसे भी चाहिए अपना एक घर?
क्यूँ बँटना पड़ता हैं औरत को दो घरों में, क्यूँ हो जाती औरत इतनी लाचार?
क्यूँ बदल जाते हैं पल भर में सब रिश्ते, क्यूँ नहीं हो पाता औरत का अपना घर?
क्यूँ कहते हैं माता पिता उसे कि वह अमानत है किसी और के घर की?
क्यूँ बना देते हैं लोग औरत को “एक वस्तु”, क्यूँ नहीं समझते तवज्जो उसके वजूद की?
जिन्दगी के दो पाँटों में पिसती रहती हर औरत, किसी ने कहाँ समझी उसके अंतर्मन की व्यथा?
घड़ी घड़ी बात बात पर सुनती है ताने, क्यूँ हर घर में होती औरत की यही कथा?
“मैं तो थक हार कर घर आया हूँ, थोड़ा चैन लेने दो, तुम तो सारा दिन घर पर थी”
क्यूँ नहीं समझता कोई यह बात कि घर में वह भी आराम तो नहीं कर रही थी?
बचपन में सुनी मां बाप की बातें, फिर बर्दाश्त की भाइयों की शरारतें,
शादी हुई तो की पति की मिन्नतें, बच्चे हुए तो झेली उनकी सब शरारतें।
क्या ऐसी ही होती है यह जिन्दगी, हाँ तो क्यों जीती है औरत ऐसी जिंदगी?
नहीं, तो क्यों नही बदलती यह जिन्दगी, दिन पर दिन बदहाल हो गई जिन्दगी।
घुट गई मन में कही अनकही हसरतें, उमड़ रही मन में जीने की चाहत,
त्यागना चाहती है जिन्दगी की यह अदावत, पाना चाहती है वह भी जिन्दगी में राहत।
आज के बच्चे भी कहाँ समझते हैं, माँओं के अंतर्मन की कहानी,
जिन बच्चों को रखती महीनों कोख के, वही बड़े होकर सुनाते, माँ को कटु वाणी।
कोई क्यूँ नहीं समझ पाया आज तक, एक औरत की पिसती जिन्दगी की कहानी,
क्यूँ करता रहता यह समाज, औरत के मनोभावों के साथ सदा मनमानी।
काश कोई समझता औरत की व्यथा, कोई सुन लेता औरत की कहानी,
कम करता उसके कुछ गम, सुनकर औरत की कथा उसकी ही जुबानी।
न समझना औरत को यूँ अबला, समझ लेना कि औरत ही है जो मकान को बनाती है घर,
अगर न हो औरत घर में, तो घर बन चुका होता कब का सूना खंडहर।