कैसे कहूँ
कैसे कहूँ
क्या चाहते हो तुम,
क्यूँ मेरे मूक शब्दों को
ज़ुबाँ देना चाहते हो,
जो तुम चाहते हो नहीं
मैं नहीं कह सकती।
नहीं कह सकती कि
मुझे तुमसे प्यार है,
नहीं कह सकती कि
मेरू सीने में जो दिल धड़कता है
उसमें धड़कन तुम्हारी है।
नहीं कह सकती कि
मेरी नसों में भी लहू
बह रहा है उसमें
रवानी तुम्हारी है,
मैं ले रही हूँ जो साँसें
उसमें महक तुम्हारी है।
नहीं कह सकती कि
इस तन की जो आभा है,
सुन्दरता है,
तुम मुझे देखते हो प्यार भरी
नज़र से वो इसलिए है।
मैं जानती हूँ सब,
पहचानती हू्ँ तुम्हारी तड़प
को जो मेरे लिए है,
उफ़्फ़ तुम्हारा ये
दीवानापन जो मेरे लिए है।
मैं चाहत हूँ, हसरत हूँ,
ज़िन्दगी हूँ तुम्हारी,
मुझे सब मालूम है,
लेकिन..लेकिन
मैं कैसे कह दूँ
वो सब जो तुम चाहते हो।
मैं मर्यादा की ज़ंज़ीरों में बँधी,
लाज के पर्दे में छुपी
नहीं कर पाऊँगी हिम्मत
तुमसे वो सब कहने की।
तुम्हें ही कहना होगा,
वरना देखोगे कैसे
मुझे ग़ैर का होते हुए,
बर्बादी की डगर पर सोते हुए,
तुम चाहो तो ले जाओ
मुझे हवा के झोंके सा उड़ा कर के,
छीन कर के या
अपना बना कर के।
बोलो क्या कर पाओगे तुम हिम्मत,
क्या ले जाओगे मुझे लगता पना बना कर,
इस बेदर्द ज़माने से छीन कर
बोलो ....कुछ तो बोलो
अब यूँ ना चुप रहो, कुछ तो कहो।