काशी के मणिकर्णिका घाट की होली
काशी के मणिकर्णिका घाट की होली
रंग-अबीर, गुलाल नहीं, बस राख का श्रृंगार यहाँ,
जहाँ मृत्यु भी पर्व बनी है, मोक्ष सजा है द्वार यहाँ।
शिव स्वयं हैं नृत्य में लीन, भस्म से मुख अरुण हुआ,
भय भी आकर मुक्त हुआ, जो सो गया, वह जान गया।
चिताओं की लपटों में खेलें, अघोरी, योगी, संन्यासी,
मस्त मलंगों संग गूँजे, शिव के डमरू की अविनाशी।
कालजयी मुस्कान लिए, त्रिशूल उठाए महाकाल,
जो मिटकर भी नहीं मिटा है, वही है जीवन का भाल।
गंगा-जटा में ठहरी देखे, कैसे काशी रंगे अनोखी,
न फूल, न रंग, बस भस्म यहाँ, जलती चिताओं की रोशनी।
भूत-गणों की टोली झूमे, महादेव संग खेलें होली,
मृग-माया सब भस्म बनी है, मुक्त आत्मा, लय अटूट होली।
मणिकर्णिका पर नित्य जले, अग्नि संग यह खेल अनोखा,
जहाँ चिताएँ दीप बनी हैं, वहीं हुआ शिव-तांडव रोचक।
न मोह यहाँ, न माया कोई, बस सत्य का आभास मात्र,
शिव में जो भी लय हुआ है, वही हुआ साक्षात् त्रिकाल।
राख उड़ाए नभ में तरंगे, मृत्यु भी मुस्कान लुटाए,
जो मिट गया, वही बचा है, यही सत्य समझ में आए।
न चंदन की महक बसे है, न फूलों की गंध यहाँ,
बस पंचतत्व में विलय हो जाए, यही पथ है मोक्ष यहाँ।
रात गहरी, चिताएँ जलतीं, श्मशान में उजियारा जागे,
अघोरी, संन्यासी, शिवगण खेलें, भूत-प्रेत संग सब भागें।
काल भी थमकर देख रहा है, कैसा यह पर्व अनोखा,
जहाँ मृत्यु भी हँसकर मिलती, वहीं अमरता का है धोखा।
जो मिटा नहीं, वह अंधियारा, जो जल गया, वह मुक्त हुआ,
जो शिव के रंग में रंग गया, वही महाकाल से युक्त हुआ।
मणिकर्णिका की इस होली में, भय का कोई नाम नहीं,
जहाँ मृत्यु भी पर्व बनी है, वहाँ विलाप का काम नहीं।
हर हर महादेव!
