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Brijlala Rohan

Classics Inspirational

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Brijlala Rohan

Classics Inspirational

काशी का जुलाहा

काशी का जुलाहा

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काशी का जुलाहा !

हाँ ! मैं कबीर हूँ।

वही कबीर जिसने समाज की

असली सामाजिकता बताई !


धर्म की मर्म समझाकर

सुखे होठों पर जल की

तृप्त बूंदे बरसायी !

तुम समझो मुझे न पराई !

हम हैं भईया !

तेरे ही सहोदर भाई।  


जाति-भेद, वर्ण-भेद और संप्रदाय-भेद का

तुम भेद छोड़ो। 

प्रेम, सद्भाव और समाज की सरसता

भरी समानता से नाता जोड़ो। 


किताबी ज्ञान के स्थान पर

आँखों देखा सत्य को पढ़

उस पर ही अपनी लेखनी चलाओ।


समाज की कुरीतियों को

मेरे मार्ग पर भी एक-दो कदम

चलकर दूर भगाओ।

घाट-घाट का घूमा-फिरा,

देशाटन और सत्संग से

समागम करने वाला फकीर हूँ।

हाँ ! मैं काशी का जुलाहा।

कबीर हूँ। हाँ ! मैं कबीर हूँ।


व्यर्थ के बाह्याचरण को त्याग 

सत्संग का तुम मार्ग अपनाओ।

नेमी-धर्मी, टीका-चंदन,

माला-जाप को छोड़कर

तुम हृदय की निर्मलता को

निहितार्थ करो।


परमार्थ में ही अपना

जीवन चरितार्थ करो।

काशी का जुलाहा !

मैं वही कबीर हूँ।


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