कागज की कश्ती
कागज की कश्ती
बचपन के दिन भी क्या थे सुहाने ।
दुख और चिंता से बिल्कुल अनजाने ।
मित्रों की टोली में ही दिल था लगता ।
घण्टों का समय पता ही न चलता ।।
बारिश का जब आता मौसम सुहाना ।
राहत मिले मन भी गाए तराना ।
कागज की कश्ती हम मिल बनाते ।
बर्षा के जल में मगन हो तराते ।।
जल वेग से कश्ती बढती ही जाती।
लखकर खुशी हो न मन मे समाती ।
जिसकी भी कश्ती गल डूब जाती ।
कागज ले फिर पल में कश्ती बन जाती।।
बारिश में कश्ती चलाकर नहाते ।
आनन्द अलौकिक हम सब हैं पाते।
मेढक की टर-टर पपीहे की पिउ -पिउ ।
पत्तों की खन खन में सब झूम जाते।।