जज़्बात
जज़्बात
क्यूँ दिए थे ये पंख मुझे
क्यूँ दी मुझे एक झूठी दिलासा
देनी ही थी तो थोड़ी हिम्मत देते
पर आप सबने तो राह में बाधाएँ खड़ी कर दी।
पंख तो मिले मुझे
उड़ना भी चाहा था
पर जब उड़ी
किसी न किसी ने रोक लिया
कभी प्यार का वास्ता
कभी संस्कारों की हिदायत
कभी कायदे कानून की दुहाई
और मेरे जज्बातों को रोंद दिया।
क्या करूँ ऐसे पंखोँ का मैं
पंख हैं तो क्या?
रास्ता कहाँ दिया?
आसमां कहाँ मिला?
कहते हैं हमने तो इजाजत दे दी
उड़ना तो तुम्हें है।
पर समझ में नहीं आता कि
इन पंखोँ का क्या मोल
जब हर बार खोलने से पहले
आप सबकी इजाजत लेनी हो तो
पंख मेरे और नियंत्रण आपका
कदम मेरे और रास्ता आपका
उड़ान मेरी और दिशा आपकी
रास्ता तो आपने दिखा दिया
पर आगे गली कुंद थी
पंख भी मिले
पर आसमान ही नहीं था
आसमान तो आपका था न।
न चल सकी, न उड़ सकी
न रास्ता मेरा, न आसमान मेरा
मैं तो पंख पा कर ही खुश थी
मुझे कहाँ पता था कि
शुरू से ही पंख कटे हुए थे।
मैं भी क्या पागल थी
रिश्तों के बंधन में बँधी थी
भूल चूकी थी अपना वजूद
पर अब और नहीं
अब पंख भी मेरे होंगे
कदम में बेड़ियाँ भी न होगी
रास्ते की गलियाँ भी चौड़ी होंगी
और खुला अंतहीन आसमान भी मेरा होगा
वजूद भी मेरा होगा
और बेड़ियों को तोड़ने की हिम्मत भी मेरी होगी
जी हाँ, मेरी हर उड़ान का पैमाना भी मेरा ही होगा।