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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract Tragedy Inspirational

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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract Tragedy Inspirational

"अंधेरे से लड़ाई"

"अंधेरे से लड़ाई"

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इस अंधेरे में खोया हुआ, सबका ही जहान

हर आदमी हुआ, आज खुद से ही अनजान

न रहा, वो आज अपनी असलियत पहचान

इस अंधेरे को मान बैठा, वो अपना भगवान

रूठे है, उजाले, टूटा हुआ है, आज आसमान

मनुष्य की मनुष्यता हर जगह से हुई, वीरान

हर जगह बोल रहे, लोग दिखावे की जुबान

इस दिखावे ने लूट लिया, अपना ही मकान

लोग साथ तो रहते है, पर बनकर अनजान

लोग अंधेरे से नहीं, रोशनी से हुए परेशान

चंद पैसे खातिर बेच रहे, लोग अपना ईमान

आज सत्य का जीना दुष्कर हुआ, श्रीमान

पर साखी जिसका जिंदा होता है, स्वाभिमान

वो अमावस में भी जलता, बनकर पूनम चांद

जिसने अपने इंद्रियों की नियंत्रित की, कमान

वो अंधेरे के देश में, रोशन होता, सूर्य के समान

जिसने अपने अंदर, अंधेरे की बंद की जुबान

वो व्यक्ति एकदिन, अवश्य बनाता है, कीर्तिमान

यकीं न हो, एकबार तम का मिटाकर, देखो स्थान

स्वयं चेहरा न दिख, जाए शीशे में कहना, श्रीमान

इस दुनिया में शूल ही दिलाते फूलों को पहचान

बिना लड़े, बिना जले कोई न बनता उजला स्थान

अंधेरे से न डरो, लड़ने का करो, एकबार ऐलान

दीपक वो बना, जो जला अंत तक इस जहान

अंधेरे ऐसे ही नही मिट जाते, सुनिए भाईजान

इसके हेतु जलाना, पड़ता अपना अहंकार दिवान



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