जंगली पुष्प
जंगली पुष्प
अनछुआ, अनदेखा, अनचाहा
नहीं किसी का मैं मनचाहा,
बीहड़ धरती पर ही अंततः:
हो जाता मेरा जीवन स्वाहा,
न होता देवालयों में अर्पित,
न ही शहीदों पर हूँ समर्पित,
मेरे नाम की परिभाषा पर
हो सकूँ, कहो! कैसे मैं गर्वित
प्रेमी-युगलों को न मैं भाता, मैं
किसी भी अन्य काम न आता,
पुष्प का जीवन मुझको देकर
लगता है भूल गया विधाता,
रहता यूँ तो चहूँ ओर प्रकाश,
फैला सिर पर अनंत आकाश,
भीतर मेरे पर है अँधियारा
हूँ इस कारण मैं बहुत हताश,
चलती जब भी हवा बसंत,
जाती बिसर वह मेरा पंत,
कैसा खिलना-मुरझाना मेरा?
बस यूँ ही जनमूँ औ' यूँ ही अंत।
