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S.Dayal Singh

Abstract

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S.Dayal Singh

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जंगल मंगल

जंगल मंगल

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तमस कहां चाणन को सहता,

चाणन भी कब चुप है रहता,

कौन पहचाने दर्द-ए-दिल को,

दर्द तो दिल में हरदम रहता।


मैं कब अर्श से तारे तोड़े,

मैं कब कलियां फूल मरोड़े,

मेरे लिए क्यूं हरदम तेरे,

सीने में इक बहम सा रहता।


टूटे शीशे कब जुड़ते हैं,

ओस में पत्थर घुलते हैं ?

बज़म तेरी का सुख पाने को,

पत्थर दिल नर्म सा रहता।


तख़त को जो पा जाते हैं,

पर्वत से टकरा जाते हैं,

उनके लिए क्यूं दिल में तेरे

फिर भी इक रहम सा रहा।


कौन पहचाने दर्द-ए-दिल को,

दर्द तो दिल में हरदम रहता।


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