जनाज़ा
जनाज़ा
आँखों में आँसू लेकर उसी जगह खड़े हैं
एक बार आकर तो देख
मेरा जनाज़ा तो नहीं उठने वाला
उस काली रात की तन्हाई पूछती थी मुझसे
क्या तेरा महबूब नहीं आने वाला
इंतज़ार में रात की सुबह हो गई
मालूम चला कि मुझे दफनाने चले हैं
कमबख़्त तुझे इश्क़ इस कदर कर बैठे
कि इश्क़ में आज कुर्बान होने चले हैं
हाँ, ख्वाहिश थी तुझे पाने की
क्या करूँ, खुदा ने बुलावा भेज दिया
क्या एक मुलाकात ऐसी हो सकती है कि
मेरा महबूब ही हो मेरा जनाज़ा उठाने वाला

