अक्षर
अक्षर
बैठे हुए सोच रही थी,
रास्ता क्या है मंज़िल का ?
इतने में ख्याल आया,
मेरे कमरे का दरवाज़ा खटखटाया,
लगा कुछ तो होगा वहाँ,
पर एक हवा का झोंका आया,
बाद में सोचा,
क्या मेरी सोच इतनी गहरी न थी,
जो हवा के झोंके से,
मैं अपनी मंजिल ही भूल बैठी,
सोच कर दोबारा उस सोच में जाना,
क्या बहुत मुश्किल होता है ?
अगर दिल से दुआ माँगो,
वो पूरी न हो ..
क्या यह हो सकता है?
रास्ता ढूंढा..... मंज़िल की तलाश की,
एक वक़्त उस तरफ चल भी पड़े,
क्या खुदा साथ देगा हमारा,
ये गहरी सोच में थे,
फिर पापा का समझना याद आया,
दिल साफ हो......
मंज़िल पता हो......
क्यों डरना मुश्किलों से,
खुदा भी उन्हीं के साथ होता हैं,
जिनका वक़्त अच्छा हो,
नियत साफ हो,
सच्चाई कर्मों में हो,
शायरी लिखना भी तभी मुकमल होता हैं,
उसके हर अक्षर दिल से निकले हो !!