जल,प्रकृति और पर्यावरण
जल,प्रकृति और पर्यावरण
बारिश की एक बूंद ने,
बिखेरी धरती पर छटा निराली है
मस्तमौला है पर्यावरण और,
हुई प्रकृति भी फिर मतवाली है।
उस एक बूंद से मिट्टी में,
सौंधी महक का दौर आया है।
सूखी बंजर भूमि में लगता है,
आज सावन का भी ठौर आया है।
प्रकृति की देन अनुपम है,
पर्यावरण ने भी रंग सजाया है।
हरी भरी हो गयी है धरती,
किसानों ने भी मीठा फल पाया है।
आज लालच ने मनुष्य के,
प्रकृति पर अपना अधिकार जताया है।
लालन-पालन करने वालों को,
भोग-विलास की वस्तु मात्र बताया है।
हम कर रहे क्या आज,
प्रकृति भी तो अब गुहार लगा रही है।
नष्ट हो रहा पर्यावरण भी,
मानव की बस्ती कुछ यूं सता रही है।
धरती को दूषित करके हमने,
अपने ही अस्तित्व को भरमा रहे हैं।
बर्बादी की ओर है जंगल हमारा,
और हम बचाने की झूठी कसमें खा रहे हैं।
आज वक़्त है हमारे पास तो,
इसे कल पर कल टालते जा रहे हैं।
वैश्वीकरण की भूख में हम,
दाना देने वाले को ही तो चबा रहे हैं।
बिन पानी के सोच लो खुद को,
वो मछली सी हालत नज़र आती है।
बड़ा गुमान जिसे खुद पर था,
बिन पानी के तड़प कर मर जाती है।
गर बचा लो जल को तुम,
प्रकृति पर तुम्हारा ये उपकार होगा।
पर्यावरण ना हो प्रदूषित ,
तभी सुखद जीवन का सपना साकार होगा।
कल की सोच रखनी होगी हमें,
धरती बदला लेने चले,तो हमारा क्या हाल होगा?
न हो जल, प्रकृति और पर्यावरण तो,
जिन्दगी में क्या अब कोई सा भी ढाल होगा?
आज भी हाथ में हैं हमारे ,
चाहें तो हम सब कुछ बचा सकते हैं।
वरना वो दिन दूर नहीं होगा,
जब ये तीनों भी हमें सता सकते है।।