जिस्म, मांस का टुकड़ा
जिस्म, मांस का टुकड़ा


पास से गुजरते हो नोच लेते हो मेरे जिस्म का एक हिस्सा
अपनी आँखों से
पता चलता है मुझे हर बार
पर कहती नहीं कुछ नजरअंदाज करके निकल जाती हूँ आगे
क्योंकि चलाना होता है घर
कमाना होता है मुझे भी तभी पाते हम खाना पेट भर
घर में जो मेरा बाप है वो अब बहुत कमजोर हो गया है
पूरी ज़िंदगी वो मिट्टी खोद कर जिया है
और मेरी माँ को दुनिया का बहुत कुछ पता नहीं
जाती है हफ्ते में एक दो बार किसी के घर करने कुछ काम
पर कमाती कितना पता नहीं
बस शाम को आती जब कभी खुश कभी उदास
जिस दिन मिला पकवान और मिठाई उसके चेहरे पर खुशी आई
उस खाने को खुद कितना खाया पता नहीं
लेकिन हमारे लिए गठरी बाँध कर ले आयी
जिस दिन मिला सूखा आनाज उस दिन सूखी रहती उसकी हँसी
लेकिन लौटकर काम से उसे आता देख हमें मिलती है खुशी
भाई को कोई काम नहीं है कभी कभी आता है उसे कोई बुलाने
तब पता लगता है मुझे कि भाई भी जाता है कभी कभी कमाने
हाँलाकि अभी उसकी उम्र पढ़ने की है लेकिन खेत में किसी का दाना छींटना,
पानी देना या खाद डालना इतना ही होता होगा काम
शाम को कुछ पैसे कुछ मिल जाता और इनाम
हम सब मिलकर कमाते हैं तब जाकर खाने भर का घर चलाते हैं
लेकिन उस दिन जब तुम सबने मिलकर मुझे दबोचा
मेरे जिस्म को एक एक करके नोचा
नोच ली गयी सारी मर्यादा, नोचा गया मेरा अभिमान
पर बख़्श देते यदि प्राण तो फिर से उठ खड़ी होती
कुछ और अपने घर के लिए कमाती
लेकिन वो भी तुम्हें मंजूर ना था
जुबान काटी , रीढ़ की हड्डियों को तोड़ा था
फिर फि लड़ी मैं कुछ दिन तक यमराज से
लेकिन हार गई इस कायर समाज से
मेरे साथ क्या क्या बीता यह कैसे तुम्हें बताऊँ
बलात्कार की क्या परिभाषा कैसे किसी को समझाऊँ
मांस से लेकर हड्डी तक कुछ न तुमने छोड़ा
शासन प्रशासन सबने मिलकर मारा कलेजे पर हथौड़ा
राजनीति के धुरंधर, जन प्रतिनिधि जितने हैं
रोटी सेक रहे अपनी सब जलती मेरी चिता पर
आखिरी क्षण भी नसीब न हो सका मेरे घरवालों को
कि देखे मुझको रो लें खुलकर, महसूस करें कुछ और दर्द मेरे मरे शरीर से
जाने कितनी मेरी जैसी अभी यातना झेल रहीं
क़ातिल और कमजोर समाज के खेल का हिस्सा बन रहीं!