जिसे मुड़ना न आया
जिसे मुड़ना न आया
बढ़ती रही मैं यादों के क़तरे
लेकर के ख़ुद में,
ठुकराते रहे हर वो पुर्ज़े
तुम लहर दर लहर में
मैं नदी हूँ जिसे पलट के
मुड़ना नहीं आया !
मीलों चली मैं
मिलन को तुम्हारे
और तुम थे गहरे
अनापरस्त ठहरे
तुम समुंदर हो जिसे आगे
बढ़ना नहीं आया !
मेरा वजूद खोया
जब मिलन तुमसे हुआ,
अंजाम-ए-सफर-ए-इश्क़
कुछ इस तरह से हुआ !
