STORYMIRROR

Punit Singh

Abstract Classics Others

5.0  

Punit Singh

Abstract Classics Others

ज़िन्दगी से एक मुलाकात

ज़िन्दगी से एक मुलाकात

2 mins
12.8K


राह गुज़रते एक शाम

यू ही हो गया मैं रूबरू

ज़िंदगी से।


यादों के शहर के बीच मे

आई नज़र वो मुझे

एक चौराहे पे।


मैंने देखा, पहचानने की कोशिश की!

लगा की जानता हूँ मैं इसे, शायद पहचानता हूँ मैं इसे।


अपनी ही उलझनों में उलझा उसे पहचान ना पाया,

जब मैं चौराहे के पार पहुँचा

ऐसा लगा, किसी ने आवाज़ दी है मुझे।


मुड़ के देखा मैंने

वो वही थी

हाँ वो वही थी। ज़िंदगी!


वो इधर ही आ रही थी

देख मुझे बड़ी खुश थी वो शायद

या शायद हैरान!


इससे पहले, की मैं हिसाब लगा भी पाता

पूछ बैठी वो

पहचाना मुझे!


था ये छोटा सा सवाल

पर जवाब ढूँढना

तो जैसे पहाड़ लग रहा था

सोच रहा था की कौन है ये!


तभी उसने दोस्ताना अंदाज़ में

ताने मरते हुए कहा,

भूल गये अपनी बचपन की दोस्त को?

मैं! ज़िंदगी!


मैं हैरान, उससे पूछा

इतने सालों बाद यहाँ कैसे?


वो बोली बस जब से बड़ी हुई खो सी गयी थी,

गुमसुम सी, थोडा अकेली पड़ गयी थी।

लोगो की उम्मीदों पे खरा उतरने की जद्दोजहद ने

उसका रंग फीका सा कर दिया था।


मैंने उसे गौर से देखा

वो कुछ रूखी सी कुछ मुरझाई सी लगी

जैसे कुछ छुपा रखा हो अंदर

और बताना ना चाहती हो किसी को।


मैंने उसे थामा

रोक के, उसे आँखो मे झाँक के पूछा

ये क्या हाल बना रखा है अपना?

बचपन मे इतनी प्यारी लगने वाली ज़िंदगी

यूँ जवानी मे क्यूँ थोड़ा मुरझाई सी है?

क्या हुआ है आख़िर ऐसा

की उसकी आँखे भीड़ मे किसी को ढूंढती सी है?


वो सिसक पड़ी

शायद कोई तार सा टूट गया था जैसे

या कोई ग़म उभर आया था आँखो मे।

भारी आँखो से बस उसने इतना ही कहा

दोस्त यही फ़र्क होता है बचपन और जवानी मे!


फिर वो दोबारा मिलने का वादा कर के चली गयी

जैसा उसने बचपन मे किया था एक बार,

और मैं,

मैं कुछ भी ना कर पाया उसकी मदद के लिए।


शायद ज़िंदगी का यही तरीका है

वो चलती है अपने हिसाब से,

जीती है अपने हिसाब से।


कोई दूसरा कितना भी चाह ले,

कितना भी चाहे उसे बदलने को

वो करती वही है जो उसे मंजूर होता है।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract