STORYMIRROR

Dr Jogender Singh(jogi)

Tragedy

4  

Dr Jogender Singh(jogi)

Tragedy

ज़िन्दा

ज़िन्दा

1 min
88

मेरे इंकार में एक हार ,बुज़दिली छुपी है ,

गहरे में नहीं ,ज़रा सा खोदोगे तो पा जाओगे।

एक डरा /सहमा हुआ आदमी

छोटी सी बात से घबराता हुआ आदमी।


पूर्णता का नाटक करता ,एक रीता हुआ आदमी।

ज़िंदा रहने के माने ,ग़र साँस लेना है।

तो मैं भी ज़िंदा हूँ, लगता तो है।

धड़कन के बाद धड़कन आ रही है लगातार,

साँसे भी चलती जा रही हैं।


यही माने है ज़िंदा रहने के मशीनों की आवाज़ों से घिरे ,

आई॰ सी॰ यू॰ में महीनों लेटे उस इंसान के ,

जो शायद ज़िंदा है ?


सड़कों पर टहलते, कभी कभी हँसते

दूसरों को रूलाते, ज़िंदा आदमी।

पूरे संसार को अपनी गिरफ़्त में लिये तथाकथित ज़िंदा आदमी।

अंदरखाने मरे हुये ज़िंदा आदमी।


सिर्फ़ आती/जाती साँसो की गवाही के सहारे ज़िंदा आदमी।

मरे हुये / डरे हुये, शतायु होने का दम्भ भरते ज़िंदा आदमी।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Tragedy