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Dr J P Baghel

Abstract

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Dr J P Baghel

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जिंदा कठपुतली है

जिंदा कठपुतली है

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समय चक्र के साथ अनेक प्रसंग बदल जाते हैं 

खेल , खेल के रूप, खेल के ढंग बदल जाते हैं।

 

खेल बुद्धि का हो कि शक्ति का, कौशल हो यदि ज्यादा 

बन भी जाता है वजीर भी खेल खेल वह प्यादा।


दांव-पेंच का अगर खेल से मेल कहीं है कोई 

राजनीति से बड़ा विश्व में खेल नहीं है कोई।


भूले आप काठ की कठपुतली का खेल तमाशा 

खेल देख लो जिंदा कठपुतली का अच्छा खासा।


खींच रहा है डोर अकेला, बैठा वो ऊपर से 

नीचे वाले नाच रहे हैं सारे मिलजुल कर के।


न्याय व्यवस्था, नौकरशाही, तंत्र खबरिया सारे 

नाच रहे हैं संविधान के रक्षक सभी हमारे।


काठ नहीं हैं किंतु काठ-सी जिंदा कठपुतली हैं

राजनीति का रंगमंच है दर्शक हम असली हैं।


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