जीवनदायिनी नदी
जीवनदायिनी नदी
हिमालय मेरा पिता है जिसकी गोद से मैं निकलती हूं
मैं एक नदी हूं जो अविरल चलती हूं।
चलती हूं घाट-घाट कस्बे-कस्बे और शहर-शहर
भरती हूं ताल-ताल नहर-नहर कुछ ठहर-ठहर।
व्याकुल हैं अतृप्त हैं मेरे बिना जन जीवन सबका
यह सफर वर्षों का है ना तब का है ना अब का।
विशुद्ध हूं तृप्ता हूं कहीं जीवनदायिनी हूं
कहीं कान्हा की प्रिया कहीं शिव की मनभावनी हूं।
भिन्न-भिन्न देह है भिन्न-भिन्न नाम है
जल ही सभी की आत्मा है जिसका सनातन काम है।
हूं शिव की जटगंगा सर्वस्थान सर्पसम हिलती हूं
स्वर मिलाती कल कल गाती सागर से जा मिलती हूं।
धन्य होऊं जब संत चरण रज मस्तक पर खिल जाती है
तीव्र वृष्टि के आने पर मुझे तीव्र गति मिल जाती है।
प्यासे तन मन भरना यही निज जीवन का ध्येय है
मुझे स्वच्छ नदी ही रहने दो यही बस मेरा श्रेय है।
