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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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जीवन पथ से

जीवन पथ से

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यूँ तो जीवन काल स्थिर है

पर जन्म से मृत्यु तक

मनुष्य गतिशील रहता है

और ये गतिशीलता

आमतौर पर उसके जीवन का

लक्ष्य होती है

कभी कभी ऐसा भी होता है

जीवन का लक्ष्य अपना होते हुये भी

अपने लिये नहीं होता है

और ऐसे ही भाव दशा में

जीवन पथ से गुजरते हुये

दिलचस्प अनुभव का पिटारा

हो गयी है हमारी जिन्दगी।

अपना लक्ष्य नहीं तो

अजनवीयत सी महसूस होती है

और ये भी तब जब

सबसे गहराई से जुड़े होने का

प्रयोजन ही साध्य है,

और ये भी सिर्फ इसलिये

कि अगर हममें फर्क नहीं है

तो फर्क आ कहाँ से रहा है हममें।

अभी तक एक

उत्तर हासिल है कि

जीवन के लक्ष्य के वशीभूत

मनुष्य खुद को खोता जा रहा है।

अपने को भूलता जा रहा है

और हम खुद से उतनी गहराई से

जुड़े हुये हैं

जितनी गहराई से और से जुड़ना

चाहते हैं।


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