जीवन नौका।
जीवन नौका।
जब आह रूह से उठती है
लोहा भस्म हो जाता है
लाठी की उस रूहानी चोट में
आवाज कहाँ कोई होती है
कुछ सोच समझ जब तक पाते
वजूद कण कण बिंध जाता है।।
यह फितरत बस इक नादनी सी
जो खुद को खुदा समझ बैठे
इक नेमत है सब जो मिला झोली में
रख ग़र ओज बात, बोली में
वह सब सिमट तब आगोश में है
हसरतें जितनी भी रिंद सजाता है।।
चल आ मिल गले उन रस्मों से
जिससे नौका यह सज जाता है
उस पार कैसे उतर जाएगा
बिसरा कर जिसने इस अब्धि में उतारा
हर लहर गर्त तक तब ले जाएगी
जिन लहरों पर बिंद इतराता है।।
सब जान लिया, सब मान लिया
नियति के ताल को ताड़ कहाँ पाता
मंद कुंद गति जो होती है संग
हर सुर, हर लय को करती भंग
जीव वेदनाओं से इन जहाँ दूर मति
नर्क धरा पर, स्वर्ग छिंद छिंद छिप जाता है।।