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Manishapatel12322 Patel

Abstract

5.0  

Manishapatel12322 Patel

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जीवन का सत्य

जीवन का सत्य

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गूंजी है नन्ही एक किलकारी सी,

गोद में

आई है कलियों सी गुड़िया प्यारी सी

जिसकी अठखेलियों से,

जीवन सा भर गया है सूने आंगन में

 जीवन के सारे रस दौड़ते हो

जैसे उस नन्हीं की हर चितवन में।


बचपन छोड़ बढ़ चली है कब जाने

वह अल्हड़  यौवन की ओर

आंखें भर आती है, सोचती हूं कि कब हो जाएगी

वह पराई, देखती हूं जब उसकी ओर।


नियम है यह प्रकृति का छोड़कर

बिटिया का एक घर को दूजे घर जाना,

पर उसके तो हर श्वास में निरंतर जुड़ा है

मात पिता के स्मरण का ताना-बाना।


प्यारी है जब बेटियां इतनी,

तो क्यों है उसके जीवन के लिए जद्दोजहद 

हत्या हो उसकी गर्भ में ही,

क्या नहीं है यह वहशी पने की हद ?


 पुत्री की अपेक्षा पुत्र मोह की इच्छा

इतनी प्रबल क्यों है होती,

जरा सोच ऐ मानव,

नारी महत्वहीन जो होती तो

जीवनदायिनी प्रकृति क्यों  

स्त्री लिंग होती ?


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