स्त्री
स्त्री
तुम्हारे दक्ष हाथ
जब मेरी परिपक्व देह में
स्त्री खोज रहे थे ....
तो यह मेरी प्रीति के कई जन्मों की यात्रा थी ....
मैंने पहचाना तुम्हारा स्पर्श
तुम्हारी गति
तुम्हारा दबाव
तुम्हारी लय ....
हमारी मृदुल स्मृतियों में मैं
एक भावपूर्ण नृत्यांगना थी
और एक उपासक भी ....
उस पहाड़ की, जिस पर देवी का मंदिर था ....
प्रसाद रूप में अर्पित किए गेंदा-पुष्पों और
सिंदूर से मेरी आस्था कभी नही जुड़ी ....
मेरी आस्था थी देवी की नीली रहस्मयी जीभ में ....
मेरी आस्था थी उसकी फैली
बड़ी लाल जालों से भरी आँखों में ....
और उसके क्रोधित सौंदर्य में
उठे पैर की विनाशक आभा में ....
महिषासुर ....
बलशाली भुजाओं वाला महिषासुर
वहाँ अपनी अंतिम निद्रा में था ....
इस दृश्य का भय
केवल तुम जानते थे
और मेरी आस्थाओं को भी केवल तुम देख पाते थे ....
तब भी तुम्हारे हाथ दक्ष थे
पतंग उड़ाने में
बेर तोड़ने में,संतरे छीलने में
और
प्रथम रक्तस्त्राव की असहनीय
पीड़ा से बहें मेरे आँसू पोंछने में ....
आज भी तुम्हारे हाथ दक्ष हैं
एक स्त्री खोजने में ....