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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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जीते हुये

जीते हुये

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प्रेम का एहसास हमारे लिये

भावनाओं की कोई

उफनती हुयी नदी नहीं,

कोई तकनीक नहीं

इस बैज्ञानिक युग की

एक नजर है बिखरी हुई

सृष्टि के समस्त आयाम पर।


एक संवाद है

मनुष्य का मनुष्य से

खुद को भुलाकर

खुद को भुलाकर उसमें होकर

खुद सा खयाल उसका

खुद सी कद्र उसकी

खुद सी नजर उसकी।


प्रेम का एहसास हमारे लिये

कोई साधन नही है

हासिल करने के लिये कोई मंजिल

एक क्रिया है

खुद में डूबने की

खुद तक पहुंचने की

खुद को पाने की।


प्रेम का एहसास कोई

त्याग नहीं है हमारे लिये

किसी काल्पनिक स्वर्णिम युग का

एक आरम्भ है जीने का

साक्षात्कार है अपने समय से

और यकीनन ये एक स्थायी प्रबन्ध है।


मनुष्य का उसकी ही मनुष्यता के लिये

प्रकृतिमय हो जाने के लिये

अपने परिवेश में सहजता से घुल जाने का

और सब कुछ बदल देने का

रूपांतरित कर देना का सब कुछ खुद सा

सब कुछ स्वीकार करते हुये।


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