ज़हर की शीशी
ज़हर की शीशी
बारिश की पहली बूंद पे आंखें मूंद
कर देखा
मुझको लगा कि तुम आये हो,
जिस्म की सिहरन, दिल की धड़कन
रगों की फड़फड़, टटोल के देखा
मुझको लगा कि तुम आये हो,
मुर्ग़े की पहली बांघ पे उठकर
चांद के संग रातों जगकर
सूरज के संग मीलों चलकर
विरह की ठंडी आग में जलकर
फूल की तरह पहले खिलकर
फिर पंखुड़ी की तरह बिखरकर
मैंने देखा,
और मुझको लगा कि
तुम आये हो
सर्द सर्द रातों में अकसर
बिस्तर में यूं जिस्म को कसकर
आंखों में अश्कों को मसलकर
यादों के कुएं में यूंही फिसलकर
उठकर गिरकर, गिरकर उठकर
मुझको लगा कि तुम आये हो,
पीठ पे खंज़र,
ज़ख़्म भी गहरा
मुस्कानों पे
रंज का पहरा
तेरे माथे गुलों का सहरा
मुझको काले साये ने घेरा
जिस्म पसीना
आंख फटी सी
धक धक सीना
साँस रुकी सी
घुप्प अंधेरा
चांद नदारद
ज़हर की शीशी
ख़ूब लबालब
फिर भी आख़िरी बार
ज़हन की ताक़त सारी जुटाकर
सोचा यही, की तुम आये हो
तुम न आये,
फिर तो क्या था
पहले मैंने नज़्म ख़त्म की
उसके बाद ज़हर की शीशी।।