एक तमाशा
एक तमाशा
एक लतीफा, एक तमाशा
कितनी ये घनघोर निराशा
बेच दिए सब कुर्ते, टोपी
तिलक, तराज़ू और लंगोटी
नंगे-भूखे पेट में रोटी
कैसे कह दूँ बात ये छोटी
अंधे खेलें आँख से गोटी
जनता कि है बुद्धि मोटी
शासन नोचे देश कि बोटी
देखो कैसी नियत है खोटी
एक लतीफा, एक तमाशा
कितनी ये घनघोर निराशा
धर्म, क्षेत्र, क्या बोली- भाषा
कोई समझ न पाये हताशा
टपक रहा है लहू ये टप-टप
इन्सां कांपे खौफ़ से कप-कप
थामी तुमने कुर्सी जब-जब
मुल्क बिका बेमोल ये तब-तब
फड़क रही है जिस्म कि रग-रग
बेबस गुज़रे रातें जग-जग
हादसे हो जाते जब-तब
रह जाती बस चीखें दब-दब
एक लतीफा, एक तमाशा
कितनी ये घनघोर निराशा
धर्म, क्षेत्र, क्या बोली-भाषा
कोई समझ न पाये हताशा।
