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Vijay Kumar parashar "साखी"

Tragedy

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Vijay Kumar parashar "साखी"

Tragedy

"झाडक्या के बोर"

"झाडक्या के बोर"

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वो डूंगरिया के लडालूम झाडक्या के बोर

हमारी इस जिह्वा को देते थे सुकून,बहोत

अब बस जेहन में वो यादे ही रह गई हैं ,

आज आधुनिकता में खो गये हैं ,वो बोर


जंगल के जंगल कटे,खोदी गई ज़मीने

फिर कैसे पाएं,स्वादिष्ट झाडक्या के बोर?

फीके है,जिसके आगे आज के 56 भोग

हमारी अति महत्वाकांक्षा ने छीने वो बोर


अब न मिलती है,हमे डूंगरो पर वो भोर

जहां यूँ ही मिल जाते थे झाडक्या के बोर

अब तो हृदय में रह गई है,चोट ही चोट

खो गई है,आधुनिकता में हमारी सोच


हर शख्स की प्राकृतिकता लुट गई है,

लुट गया है,सादगी का रमणीय मोर

अब रह गया है,बस दिखावे का सोर

हर शख्स खुद की खुदी का हुआ चोर


लुप्त से हो गये हैं ,इंटरनेट पर रह गये हैं ,

शूलों बीच लहराते हुए झाडक्या के बोर

गर हम न जागे,प्रकृति को न माना सिरमौर

फिर एकदिन हमारा भी न रहेगा कोई सोर.



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