जब मुड़कर देखा तो अकेला था
जब मुड़कर देखा तो अकेला था
विनम्रता की दौलत साथ लेकर मैं इस सफ़र में निकला था,
दुःख दर्द औरों के देख, हर बार, हर मोड़ पर मैं पिघला था,
पर दुनिया ने तो समझ लिया इस झुकाव को कमज़ोरी मेरी
कारवां साथ लेकर चला, जब मुड़कर देखा तो अकेला था।
हर बार झुका मैं, किया है समझौता, जिन्हें साथ रखने को,
आज वही रिश्ते, दो पल तैयार नहीं, मेरी खातिर रुकने को,
कहते हैं विनम्रता सुख आधार फिर क्यों अपयश ही मिला,
इससे बढ़ कोई व्यवहार नहीं, क्या रह गया बस कहने को।
पल-पल अश्क बहा इन आंँखों से, दर्द अपनों का देखकर,
आज दर्द जब मुझ पर हुआ हावी, कोई कहांँ देखे मुड़कर,
जीवन के झंझावतों में कदम से कदम मिलाकर साथ चला,
आज मुंँह मोड़कर चले गए वही इन्हीं झंझावतों में छोड़कर
ख़ामोशी के अंधकार में, क्यों जीवन का रास्ता खो गया है,
क्या विनम्र होना कोई गुनाह है, जो मेरे हाथों से हो गया है,
अब तू ही बता ऐ ज़िन्दगी, कौन सी मंजिल है, मेरी अपनी,
हर मोड़ से मेरा किरदार, हर बार मायूस होकर ही लौटा है।