ज़ालिम प्रेम रस घोल गया
ज़ालिम प्रेम रस घोल गया
जाने अनजाने खींची चली गईं उसके प्यार में
सोचा कुछ ख़ास ज़रूर होगा मेरे इस यार में
वो उतरता गया रूह में मूक बन मैं देखती रही
मेरी गर्दन थी उसके कशिश की पैनी धार में
अजीब-सी सिहरन दौड़ रही थी मेरे बदन में
जैसे बिजलियाँ चमक रही थी नील गगन में
देखते देखते ज़ालिम ने आंखों में क़ैद कर लिया
सांसें सुलग रही थी उसकी सांसों के अगन में
खुद को करके उसके हवाले चैन से सो रही थी
आषाढ़ का महीना रिमझिम बरसात हो रही थी
उसकी दीवानगी में अपनी दीवानगी भूल गई
बंद करके नयन उसकी दुनिया में खो रही थी
उसकी धड़कनें मुझे और करीब बुला रही थी
उसकी गर्म सांसें लोरी गाकर मुझे सुला रही थी
रेशमी एहसासों की चादर में ख़ुद को समेटकर
अतीत की भूली बिसरी यादों को भुला रही थी
इक दिन मैं अपने यार की और यार मेरा हो गया
मीठी मीठी बातों से जादूगर ग़म के आंसू धो गया
कभी जुल्फों से कभी प्यासे अधरों से खेला था
देखते देखते मेरी ज़िन्दगी में इक टीस बो गया
दिल में जो राज़ दफन थे दीवाना आज खोल गया
कितनी मोहब्बत है मुझसे जुबां से यार बोल गया
धीरे धीरे पिघली थी उसके मखमली जज़्बातों में
सावन की पहली फुहार में वह प्रेम रस घोल गया।

