" इश्क़ का दर्द "
" इश्क़ का दर्द "
वो दर्द से तड़पना उनका
दर्द भरी ऐसी वो शाम न हो
वो ग़ज़ल किस काम की
जिसमे "इश्क़" का नाम न हो
जख्म-ए-दिल के गहरे हुए
छूना उन्हें यूँ आसान नही
डरते हैं वो छूने से इस कदर
जैसे रिश्तों की कोई पहचान नहीं
प्रीति है उन रिश्तों के बंधन का
नज़रें है तेरी प्रेम भरी
कुछ अल्फ़ाज़ मेरे भी सुनो
यादों में तुम भी उलझी पड़ी
सुलझ जाओ तुम भी
अब ये "कल्ब" मानता नहीं
रुक जाओ तुम भी यहीं
मैं भी अब न जाँऊ कहीं।