इश्क़
इश्क़
दीवाने बहुत देखे हैं, दीवानगी भी कम नहीं,
जिस्म के परवाने देखे हैं, रूहानियत का एहसास नहीं,
ऐसी दीवानगी किस काम की, सीरत पहचानती नहीं,
सूरत का लिबास ओढ़े, हिज़ाब का अंश तक नहीं।
ज़िन्दगी की ख़्वाहिश में जीना नहीं, मरना मन्ज़ूर है़,
पर फिर भी क्यों रूह से दूर जिस्म ही गुरूर है,
ये बस चार दिन की चाँदनी का ही तो सुरूर है,
और रूहानी लम्हें जन्म जन्म तक चेहरों से बेज़ार हैं।
ज़िन्दगी की आधुनिकता का यही तो मायना है,
शरीर जल गया, मगर रूह तो बस आईना है,
जिस्मानियत में उलझे रहे, सब कुछ ही बेगाना है,
इन्सान तो अब बस सब्र से छलका हुआ पैमाना है।
चाहतों के जुनून में क्यों अन्धा हो रहा, मेहरबान इश्क़,
झूठी तस्वीर को क्यों आईना बनाया, कद्रदान इश्क़,
जिस्म को अपना शिकार बनाया, बेईमान इश्क़,
इन्सानियत को बदनाम करता, बेज़ुबान इश्क़।
दीवाने बहुत देखे हैं, दीवानगी भी कम नहीं,
जिस्म के परवाने देखे हैं, रूहानियत का एहसास नहीं,
ऐसी दीवानगी किस काम की, सीरत पहचाहनती नहीं,
सूरत का लिबास ओढ़े, हिज़ाब का अंश तक नहीं।