इश्क में दीवानगी
इश्क में दीवानगी
बेदम उस याद के मैं सदके उस
दर्द -ए-मुहब्बत के कुर्बा।
जो जीना भी दुश्वार करे,
और मरना भी मुश्किल कर दे।।
कटती हैं इश्क में रातें न पूछिए।
झपकी न अपनी आँख कभी अपनी नींद से।
कुछ देर बेखुदी ने सुलाया तो सो लिये।।
मुनहसिर मरने पे हो जिसकी उम्मीद ,
ना उम्मीद उसकी देरवा चाहिए।
नक्शा गहरे हो चले हैं, अब किसी के याद के,
भूल जाता हूँ बसा औकात अपना नाम भी।।
अब यह आलम है मेरी वारफतगी -ए -शौक का,
अपनी सूरत को भी कहता हूँ तेरी तस्वीर है।
मैं ही शमा मैं ही महफिल हूँ मैं ही परवाना,
मेरी ही आग है और मैं ही जला जाता हूँ।
सौदागरी नहीं यह इबादत ख़ुदा की है,
ऐ बेखबर जजा की तमन्ना भी छोड़ दे।