इश्क़ का रोग
इश्क़ का रोग
इन बर्फीली वादियों में तेरा होने में मुझे ज्यादा देर नहीं लगती
सोने से पहले और उठने के बाद, मेरी आंख ही नहीं लगती
चाहता हूं तुम्हें और दिलो जां से चाहता हूं मालूम है सबको ये
हां मगर मेरे चाहने के पीछे ऐसी–वैसी कोई शरारत नहीं होती।
यह सहरा है कोई या तस्सव्वुरात–ए–ज़िन्दगी
ना मुझको जीने है देती, ना तेरा होने है देती।
बैठे किसी पेड़ की छांव में, सोने भी नहीं देती
ज़ख़्म बहुत है सीने में, मत छेड़ रग है दुखती
आंखों में है कसम, ये भी विरान सी है दिखती
ये वफ़ाओं से भरी ज़िन्दगी बेरंग सी है लगती।
यों अदब–आदाब का लिबास पहने तुम कहां निकली
ओ! मगरुर–ए–खुद तुम आराम करने किधर जा बैठी
दर्द की इंतहा छोड़, इश्क़ का रोग लगा बैठी
दिल तो चीर दिया, पर तूफान को जगा बैठी
कहते हैं कि ख्वाब कभी मुसलसल नहीं होते
पर अजब है तेरी आंखें हम भी उनमें तैर जाते।