इमकान
इमकान
बात कहीं हमारे दरम्यान, है कुछ तो,
मुहब्बत का अभी इमकान, है कुछ तो।
भुलाये से भी नहीं जो भूलते है वो लम्हें,
हाले-दिल माज़ी से परेशान, है कुछ तो।
इक उम्र गुजर गयी है वो मुलाक़ात हुए,
ज़हन में तारो-ताज़ा पहचान, है कुछ तो,
जिस्मों का तर्के-ताल्लुक, रूहों का नहीं,
बाकी दिल पे नामो-निशान, है कुछ तो।
जुस्तजू तेरी अभी भी मुतमईन करती मुझे,
आलम-ए-पीरी में दिल जवान, है कुछ तो।
अधूरी ख्वाईशों ने रखा अब तलक जिंदा,
इश्क़ शायद मेरा निगहबान, है कुछ तो।
‘दक्ष’ ज़माने को है शौक़ अफ़वाह का,
बिला खता बेगुनाह पशेमान, है कुछ तो।