इच्छाएँ
इच्छाएँ
इस मन में रोज उगती हैं
इच्छाओं की अनंत लताऐं
कुछ घनीभूत होकर फैलती हैं
और संपूर्ण व्यक्तित्व को लील जाती हैं
कुछ इच्छाओं को खाद पानी हासिल नहीं होता
और वे बीच रास्ते में ही दम तोड़ जाती हैं
फिर कोई नई इच्छा कुलबुलाने लगती है
और हम इच्छाओं के मकड़जाल में फंस जाते हैं
इन इच्छाओं में अनेक फूल आ जाते हैं
तब इच्छाओं का समुद्र बनता जाता है
सुनामी सी आने लगती है
सब कुछ तहस नहस हो जाता है
इच्छाओं को उगने से रोकना होगा
दृढ निश्चय के अस्त्र से काटना होगा
ये लक्ष्य से भटकाती हैं
इन्हें ध्यान योग से काबू में रखना होगा
सब बुराइयों के मूल में यही हैं
इच्छाएँ, अधूरी इच्छाएँ, अनंत इच्छाएँ।