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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

हर जख़्म

हर जख़्म

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हर टूटे हुए शीशे को फ़िर से

जुड़ने की दुआ नहीं मिलती है

वैसे हर जख़्म की फ़िर से ठीक

होने की दवा नहीं मिलती है


लोगों ने यूँ तो हर जख़्म की

कीमत के बाज़ार सज़ा रखें है

पर मोहब्बत के किसी भी

जख़्म की दवा नहीं मिलती है


ये तो अपना अपना नसीब होता है,

हर कोई दुनिया में ख़ुदा नहीं होता है,

हर जख़्म को एक पवित्र

जन्नत जैसी खुशी नहींं मिलती है


तेरे जख़्म साखी बेहद अनमोल है,

इन्हें तू सँभाल कर रख,

हर जख़्म को इस दुनिया में

अपनी मंज़िल नहीं मिलती है


ये जख़्म भी बोलते बहुत है,

जज्बातों से खेलते बहुत है,

अपने जख्मो से तू ज़रा संभल ले,

हर जख्म को कभी अपनों की

मोहब्बत नहीं मिलती है


कभी आंसू से चुप होते हैं,

कभी दिल के लहू से चुप होते है,पर

हर जख़्म को कभी आंसू या

लहू की बारिश नहीं मिलती है


ये बंजर व वीरानी सी दुनिया है सारी,

हर शख्स को है यहां पैसे की बीमारी,

हर जख़्म को यहां रुपये व

पैसे की खरीदारी नहीं मिलती है


पत्थर रख ले तू अपने सीने पर,

हर जख़्म को कर दे तू दिल से बेघर,

क्योंकि पत्थरों पर क़भी चरागों

की रोशनी नहीं मिलती है


हर जख़्म की यहां बिना मतलब के 

एक पैसे की भी दवा नहीं मिलती है।


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