हम स्वप्न रचते
हम स्वप्न रचते
हम स्वप्न रचते,रोज रचते, हर समय रचते ही रहते
जो सत्य हैं इस जिंदगी के, उनसे हम बचते ही रहते।
क्या पता कब कौन झोंका, आ करके उलझाए हमें
उससे बचने के लिये, हर युक्ति हम गढ़ते ही रहते।
हम स्वप्न रचते, रोज रचते, हर समय रचते ही रहते।
कल्पना हम उसकी करते, जो बहुत हो दूर हमसे
और मेहनत की सदा हम, करते हैं चोरी स्वयम से।
चाहिये हमको वो सब कुछ, जो नहीं हासिल किसी को
पर उसे पाने की खातिर, हम नहीं हैं यत्न करते।
हम स्वप्न रचते, रोज रचते, हर समय रचते ही रहते।
क्या कल्पना के मात्र से, हासिल किसी को कुछ हुआ है
क्या कोई ऐसा है जग में, जो सोते हुए विजयी हुआ है।
दो वक्त की रोटी भी मेहनत से ही, मिलती यहाँ है
ज्ञान के इस दीप ने सबको, क्यों नहीं रोशन किया है।
क्या कल्पना के मात्र से, हासिल किसी को कुछ हुआ है।
आसमाँ के जद की इच्छा, गर हमारे दिल में है
ख्वाहिशें तारों को छूने की, गर बनाए हम हैं बैठे।
तो बिना मेहनत किये, हासिल न कुछ कर पाएंगे
क्यों नहीं इस सत्य को, हैं आज हम स्वीकारते।
स्वीकार इसको हम जहाँ में क्यों नहीं हैं यत्न करते
हम स्वप्न रचते, रोज रचते, हर समय रचते ही रहते।