हम चाहे और...
हम चाहे और...
हम चाहे और वो बदल जाए,
ये तो मुनासिब नहीं।
वो चाहे और हम यहीं रुक जाए,
ये उनकी भी साज़िश नहीं।
हम चाहे और वो सच कह दें,
ये तो उनकी ख़ासियत नहीं।
वो चाहे और हम सब भूल जाए,
इतनी भी उनकी एहमियत नहीं।
हम चाहे और वो सवेरे की तरह हमें रोज़ मिले,
इतने शौक़ीन हम नहीं।
वो चाहे और हम हर पहर उनका नाम जपें,
इतनी शिद्दत अभी उनमें नहीं।
हम चाहे और उन्हें इत्तिला हो जाए,
ये तो हमारा नसीब नहीं।
वो चाहें और हम परिंदो से उनकी बातें करें,
ये तो उनका फ़रमान नहीं।
हम चाहे और वो कहीं छूट जाए,
अब तक क़ुदरत ने ऐसा इशारा दिया नहीं।
वो चाहे और हम वक़्त में पीछे लौट जाए,
ये भी क़िस्मत को ग़वारा नहीं।
हम चाहे कि हम कुछ ना चाहे,
तो वो क्यों ना पूछें कि अब हम, हम हैं या
तुम और मैं बनकर रह गये कहीं ?
चाहतों के भरोसे सफ़र तय कर रहे हैं हम,
वो मुकर जाएँ तो क्या,
अपने ही दम पर बेसब्र हो रहे हैं हम।
ख़्यालों में ही सही,
कभी तो वो भी पहल करे,
क्यों हर दफ़ा हम ही दर्द-ए-दिल बने ?
कभी तो वो चाहें कि हम उनका मज़हब बने,
ऐसा तो कभी जताया नहीं।
हम चाहें कि वो आँखें मूँद कभी दीदार करे,
ऐसा तो हमारा अक्स भी नहीं।
वो चाहें कि हम उन्हें ख़त लिखें,
ऐसा तो उन्होंने व्हाटसअप् पर कहा नहीं |
हम चाहें कि वो रोज़ाना कसरत करे,
इतना तो हमारा हक़ नहीं।
वो चाहें कि हम दाल सारी, बिन तड़के की बनाए,
ऐसी तो उनकी आदतें नहीं।
हम चाहें कि वो सर्दियों में भी रोज़ नहाए,
इतनी तो हमारी हिम्मत नहीं।
कभी तो वो चाहें कि वो भी कुछ ना चाहें,
कभी तो वो चाहें कि वो भी कुछ ना चाहें,
ऐसा सोचना ही क्यों ?
जब उनसे अब उतनी मोहब्बत नहीं।।
