हकीकत की दुनिया
हकीकत की दुनिया
निकलकर कल्पनाओं की राजमहल से,
थोड़ा हक़ीक़त की सरजमीं पर,
बढ़ाकर कदम देखो ग़ालिब।
सुना है,यहाँ का मंज़र बड़ा हीं निराला है।
ख़ैरियत थी कि,ठंड का अंदाजा हो गया,
पग चादर से बाहर निकालने से पहले हीं।
एक बार पुनः साबित हो गया,कि
पैर उतने हीं पसारें जितनी लंबी चादर हो।
बेशक जरूरी है जलना,दीपक को।
लाज़िम है रौशन करना हर अंधेरी नगरी को।
अमावस की काल रैन को पूनम जो करना है।
पर,कभी कभार बुझना भी जरूरी है,जलते हुए दीप को!
जरूरी है बुझना,ताकि आँका जा सके,
तम (अंधकार) की गहराई को।
और तब घटाया-बढ़ाया जा सके,
प्रज्ज्वलित दीप की तीव्रता को।
हमारी नेत्रों की झोली इतनी छोटी तो नहीं,
जिसमें सुनहरा प्रकाश न समा सके।
पर ,इतनी बड़ी भी नहीं कि,
संपूर्ण ज्योति को समावेश कर ले।
दीपक तो फिर भी दीपक है।
बाती फिर भी जलती रहती है।
आखिरी बूँद तेल के समाप्त होने के बाद भी।
पर,जलते हुए दीपक को देखकर जलना,
आस-पास मंडराते हुए जुगनू को।
निहायत व्यर्थ है।
मोहताज है वो माचिस की तीलियों का!
जलने के लिए,जो
पवन के एक तेज गति से बुझ भी सकता है।
पर जुगनू किसी का मोहताज नहीं।
वो पथभ्रमित नहीं करता किसी मुसाफ़िर को,
चाहे कितनी भी तीव्र आँधी-तूफ़ां हो।
और फ़िर उस मुसाफ़िर के लिए वो जुगनू,
कहीं राजभवन को जगमग करता,
किसी चिराग़ से कम तो नहीं।
