या शायद मैं इंसान ही ना थी
या शायद मैं इंसान ही ना थी
थी चीखे मेरी खामोश सी, या शायद
लोगो को सुनना नहीं था
बिकती रही मैं जिस्म के बाजार में और
मेरे बाप के उम्र का ही मेरा ख़रीददार था
समझ आने तक हो चुकी थी बर्बाद मैं
पूरी तरह से,
या शायद बचपन से ही मेरे नसीब में
मेरा इस्तेमाल ही था
वो कुरेदता रहा मेरे जिस्म के गहराई को
या शायद मेरा जिस्म बचपन से ही
बिकाऊ था
निर्वस्त्र होती रही मैं हर घंटे पर किसी को
मेरे दिल के दर्द का एहसास ना था
लाखों ग्राहक मेरे शरीर के पर मुझ से दो
वक्त बात कर ले ऐसा कोई इंसान ना था
मैं रोती थी घुटन से हर रोज़ पर किसी को
परवाह ना थी
मेरा रंग रूप ही गुनहगार था या शायद
मैं इंसान ही ना थी
बुखार में जब माथे पर एक नर्म हाथ की
ज़रुरत होती थी
तब किसी हैवान के हाथों में मेरे बालों की
लगाम होती थी
सोचा था मर जाउंगी मैं एक दिन पर
आज जिन्दा हूं,
या शायद मेरे भगवान को मेरा मरना
मंजूर ना था
आज फिर से एक नयी सुबह तो हुई हैं
पर सूरज के साथ मेरे दरवाज़े पर
एक नया ग्राहक खड़ा था
छोटी सी थी जब मेरे बाप ने मुझे बेच
खाया था
मेरे पांच साल के शरीर की कीमत
चंद रुपियो में लगाया था
समझ ना थी मुझे उस सौदे की या
मेरे बाप पर मुझे बहुत यकीन था
सोचा था पाठशाला जा रही हूं,
पर किसे पता था बाप होकर भी मेरे
नसीब में बनना यतीम था
कभी पहना ना कपड़ा पसंद का मैने
ना दीवाली ना दशहरा मनाया मैने
ना जाने किस ग़लती की सजा मिल
रही है मुझे
इंसान हूं पर इंसान जैसा जीने का हक़
नहीं हैं मुझे
घिन आती हैं आज मुझे मेरे ही शरीर से,
अच्छे चेहरों के पीछे छुपे डरावने अक्स से
इत्र घुलता रहा हजारों का मेरे बदन पर
और मेरी ही खुशबु चली गयी
आज मुझे छोड़ के