उस घर की बेटी
उस घर की बेटी
उस घर में माँ नहीं है
पर
उस घर की बेटी
माँ से कम भी नहीं है
भोर होते ही उठ जाती है
नन्हे नन्हे हाथों से रंगोली बनाती है
इक हाथ से आँसू पोंछती है आँखों के
और इक हाथ से चूल्हा जलाती है
कभी जल जाती है रोटी, तो रो देती है
और कभी गोल गप्पे सी फूला उसको
वो सबको दिखाती है
उस घर में माँ नहीं है पर
खुद से भी छोटे दो भाई है उसके
बिस्तर से जगाती है उनको
नहलाती है, फिर कपड़े पहनाती है
खुद पढ़ने नहीं जाती पर
उनको स्कूल रोज़ ले जाती है
उस घर में
चूल्हे का धूंआ आँखें जलाता है
सुबह शाम उसको खूब रुलाता है
पर वो फिर भी मुस्कुराती है
माँ का हर फर्ज़ निभाती है
थक जाती है जब वो नन्ही जान
चुप तस्वीर के आगे माँ के आ जाती है
शिकायत कुछ नहीं करती बस
कुछ देर रोती है, फिर मान जाती है
उस घर की बेटी
गुड़ियों से खेलने की उम्र में
दिन रात हालात से खेलती है
कभी ठीक न होने वाली बाप
की खांसी को
दिन रात वो झेलती है
भाई जब भी बीमार पड़ जाता है
सिरहाने बैठ उसके रात भर
हाथ सर पर उसके फेरती है
उस घर की
जिन आँखो ने अभी पूरा
आसमाँ भी नहीं देखा
उन आँखों में अपनों के
लिए सपने देखती है
नन्हे नन्हे हाथों से कपड़े
सुखाती है
टूट जाता है बटन कोई तो
टांका भी लगाती है
देखते ही गली में गुब्बारे
वाला कोई
वो झट से बच्चा बन जाती है
पर, जाने क्या सोचती है और
अगले ही पल ओढ़ लेती है संजीदगी
जिम्मेदारियों की लपेट चद्दर तन पे
वो माँ की भूमिका बखूबी निभाती है
उस घर की
शाम होते ही ओढ़ लेती है दुपट्टा सर पे
तुलसी के आगे दिया भी जलाती है
छोटी छोटी बातों में उसकी
छलकती है ममता
वो बेटी पर भर में माँ बन जाती है
उस घर में माँ नहीं है , पर
उस घर की बेटी माँ से कम भी नहीं है