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Vandaana Goyal

Abstract

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Vandaana Goyal

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उस घर की बेटी

उस घर की बेटी

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उस घर की बेटी

उस घर में मां नहीं है

पर———-

उस घर की बेटी

मां से कम भी नहीं है

भोर होते ही उठ जाती है

नन्हे नन्हे हाथों से रंगोली बनाती है

इक हाथ से आंसू पोंछती है आंखों के


और इक हाथ से चूल्हा जलाती है

कभी जल जाती है रोटी, तो रो देती है

और कभी गोल गप्पे सी फूला उसको

वो सबको दिखाती है

उस घर में मां नहीं है पर——-++


खुद से भी छोटे दो भाई है उसके

बिस्तर से जगाती हैं उनको

नहलाती है , फिर कपड़े पहनाती है

खुद पढने नहीं जाती पर

उनको स्कूल रोज ले जाती हैं

उस घर में———


चूल्हे का धूंआ आंखें जलाता है

सुबह शाम उसको खूब रुलाता है

पर वो फिर भी मुस्कुराती है

मां का हर फर्ज निभाती है

थक जाती है जब वो नन्ही जान

चुप तस्वीर के आगे मां के आ जाती है

शिकायत कुछ नहीं करती बस—–

कुछ देर रोती है, फिर मान जाती है

उस घर की बेटी——-


गुड़ियों से खेलने की उम्र में

दिन रात हालात से खेलती है

कभी ठीक न होने वाली बाप की खांसी को

दिन रात वो झेलती है

भाई जब भी बीमार पड़ जाता है

सिरहाने बैठ उसके रात भर

हाथ सर पर उसके फेरती है

उस घर की——


जिन आंखो ने अभी पूरा आसमां भी नहीं देखा

उन आंखों में अपनो के लिए सपने देखती है

नन्हे नन्हे हाथों से कपड़े सुखाती है

टूट जाता है बटन कोई तो टांका भी लगाती हैं

देखते ही गली में गुब्बारे वाला कोई

वो झट से बच्चा बन जाती है


पर—जाने क्या सोचती है और

अगले ही पल ओढ लेती है संजीदगी

जिम्मेदारियों की लपेट चद्दर तन पे

वो मां की भूमिका बखूबी निभाती है

उस घर की


शाम होते ही ओढ लेती है दुपट्टा सर पे

तुलसी के आगे दिया भी जलाती है

छोटी छोटी बातों में उसकी छलकती है ममता

वो बेटी पर भर में मां बन जाती है

उस घर में मां नहीं है पर

उस घर की बेटी मां से कम भी नहीं है।


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